करम झारखण्ड, बिहार, ओड़िशा, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख त्यौहार है। करम महापर्व प्रकृति पूजक आदिवासियों का महान पर्व है। इस त्यौहार के माध्यम से आदिवासियों की संस्कृति परंपरा को जीवित रखते हैं।
मुख्य रूप से यह त्यौहार भादो (लगभग सितम्बर) मास की एकादशी के दिन और कुछेक स्थानों पर उसी के आसपास मनाया जाता है। इस मौके पर लोग प्रकृति की पूजा कर अच्छे फसल की कामना करते हैं, साथ ही बहनें अपने भाइयों की सुरक्षा के लिए प्रार्थना करती हैं। करम पर झारखंड के लोग ढोल और मांदर की थाप पर झूमते-गाते हैं।
करमा पर्व क्यों मनाया जाता है
झारखंड राज्य में यह दूसरा सबसे बड़ा प्राकृतिक पर्व करम पर्व होता है जिसे इस कामना से मनाया जाता है कि लगाया गया फसल अच्छा हो और पहला सबसे बड़ा प्राकृतिक पर्व है सरहुल जिस समय पेड़ पौधों में नए-नए फूल और पत्तियाँ आना शुरू होती हैं उसी समय सरहुल पर्व मनाया जाता है।
जब अच्छी बारिश होती है तब किसान अपनी फसल लगाते हैं और फसल का कार्य समाप्त होने की खुशी में करमा पर्व को मनाया जाता है । साथ ही बहने अपने भाइयों के लिए सुरक्षा के लिए प्रार्थना करती हैं कर्मा पर झारखंड के लोग ढोल व मांदर की थाप पर झूमते गाते हैं ।
करमा पर्व को आदिवासी संस्कृति का प्रतीक भी माना जाता है। कर्मा पूजा पर्व आदिवासी समाज का एक प्रचलित त्यौहार है । इस परवाह में एक खास नृत्य भी किया जाता है जिसे करमा नृत्य भी कहा जाता है ।
करम गीत
करम गीत एंव करमा नृत्य मनोरंजन के गीत-नृत्य हैं। बारिश शुरु होने के साथ करम गीत गाये जाने लगते है और फसल के कट जाने तक गाये जाते हैं। करम गीत में बड़े सुन्दर सम्बोधन का प्रयोग होता है। एक-दूसरे का नाम न लेकर बड़े प्यार से किन्हीं और शब्दों से सम्बोधन करते हैं। जैसे प्यार भरा संबोधन है – “गोलेंदा जोड़ा” । करम गीत गाते समय मांदर बजाया जाता है। मांदर सुनकर गाँव के सभी लोग दौड़कर चले आते है और नाचने लगते है। करम गीत और नृत्य जिस जगह पर होती है उसे “अख़ड़ा” कहते है।
करम पूजा का नियम
वैसे तो झारखंड में होने वाले प्राकृतिक जितने भी पर्व है सभी ” पाहन ” द्वारा ही किया जाता है । पर करम पर्व में कई जगहों पर ब्राह्मण भी इसकी पूजा करवाते हैं ।
एकादशी से सात दिन पहले ही करम पूजा शुरू हो जाती है। करम पर्व मनाने के लिए सात दिन पहले युवतियां अपने गांव में नदी या तालाब जाती हैं, जहां बांस की टोकरी में बालू डालकर उसमें धान, गेंहू, चना, मटर, मकई, जौ, बाजरा, उड़द आदि के बीज बोती हैं। जो छोटे छोटे पौधों के रूप में उगते हैं जिसे ” जावा ” कहते हैं । उसके बाद निरंतर सात दिनों तक सुबह-शाम टोकरियों को बीच में रखकर सभी सहेलियां एक-दूसरे का हाथ पकड़कर व उसके चारों ओर परिक्रमा करते हुए गीत गाते हुए नाचती हैं। इसे जावाडाली जगाना कहा जाता है।
टोकरियों में बोए गए बीज को अंकुरित करने के लिए करम त्योहार के एकादशी तक हल्दी मिले जल के छींटों से सुबह शाम नियमित रूप से सींचा जाता है। सात दिनों में जब बीज अंकुरित हो जाते हैं तो एकादशी के दिन करम पूजा में उस जावा डलिया को शामिल किया जाता है।
पूजा शुरू होने से पहले पाहन जंगल से करम वृक्ष की शाखा को आंगन के बीच में लगाया जाता है । करम शाखा को लगाने के समय में भी अलग गीत भी गाया जाता है ।
करमा के वृक्ष से डाल को कुल्हाड़ी से एक ही बार में कटा जाता है तथा इसे जमीन पर गिरने नही दिया जाता है । इसे जंगल से लाने के बाद घर के आंगन या अखरा के बीचों-बीच लगा दिया जाता है । करमा पूजा के दिन करमा के छोटे – छोटे डाल खेत-खलिहान तथा घर में रोपित किया जाता है ।
कर्मा वृक्ष रोपित होने के बाद पूजा के समय गांव के सारे गन्य – मान्य व्यक्ति तथा बूढ़े – बुजुर्गों, माताएं- बेटियां , भाई – बहन सब कोई पूजा देखने व सुनने के लिए वहां पर उपस्थित हो जाते हैं।
पूजा के समय उपवास कि हुई युवतियां करम वृक्ष के चारो ओर आसन पर बैठ जाती हैं । इसे प्रकृति के आराध्य देव मानकर पूजा करते है। और बहने अपने भाइयों के लिए स्वास्थ्य रहने और सुरक्षा की कामना करते हैं ।
अखड़ा में पहान से सुनते करम कथा
करम पर्व पर सभी लोग अखड़ा में पहान से करमा कथा सुनते हैं। फिर अखड़ा में युवक-युवतियों द्वारा पारंपरिक रूप से करम गीत और नृत्य प्रस्तुत किए जाते हैं। करम कथा और करम गीत में कई अलग-अलग कहानियां प्रचलित हैं, लेकिन सभी में कर्म प्रधानता और प्रकृति संरक्षण का संदेश दिया गया है।
उसके बाद सभी करमैती तथा आसपास तथा घर के लोग खूब नाच गान करते हैं। मांदर के साथ साथ नगाड़े की थाप पर सभी थिरकते है । करम नृत्य करते है और हरसोल्लास के साथ करमा पूजा मानते हैं ।
पाहन द्वारा पूजा समाप्त होने के बाद अगले दिन सुबह करमैती करम वृक्ष के डाल को पूरे धार्मिक रीति रिवाज के साथ तालाब , पोखर या नदी में पूरे गीत गाते और नृत्य करते हुए विसर्जित कर देते हैं । पूजा होने के बाद करमैती अपना उपवास तोड़ती हैं ।
करम को विसर्जित करने से पहले सभी अपने घरों में “डंडा कट्टना” करवाते हैं और डाली को खेत में गाड़ दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इससे फसल सुरक्षित रहता है और पैदावार अधिक होती है। करम त्यौहार कृषि और प्रकृति से जुड़ा है। इसमें परिवार की सुख समृद्धि के साथ फसलों की अधिक पैदावार के लिए प्रकृति से अराधना की जाती है।